शुक्रवार, जुलाई 27, 2007

साया

देखो नक्शे कदम पर तुम्हारे ऐसे चल रह हैं हम
कदमों के निशां तुम्हारे मिटाते चल रहे हैं हम

पीछे मुडकर न देखना कभी जो राह छोड दी तुमने
तुम्हारे माज़ी को दामन में समेटते चल रहे हैं हम.

तुम न डरना किन्हीं काले सायों से कभी
रुसवाई को तुमसे जुदा करते चल रहे हैं हम

गुरुवार, जुलाई 12, 2007

जिन्दा बसीत खूब बसीत

इस बार गर्मी की छुट्टियां काबुल में बितानी है.घर का मुखिया वहीं पर है. बच्चे अपने दोस्तों से बताने में हिच्किचा रहे हैं .अफगानिस्तान भी कोई जगह है जाने की.पापा से कहिये इंग्लैंड ,सिंगापुर का प्रोग्राम बनाएं.ज़रा बाहर पेड को हिलाओ शायद पैसे टपक पडें ,पापा का जवाब है.काबुल तो जाना ही है.पापा वहां अकेले पडे है. किस हाल में रहते हैं इसकी खोज खबर भी लेनी है.मन में डर था कि न जाने वहाँ का क्या हाल होगा.आए दिन सुसाइड बाम्बरस की खबर पडने को मिलती है.

डर ,आशंकाओं पर एक कौतूहल लिये हुए हम काबुल के लिये रवाना हुए.हवाई जहाज तो पूरा भरा हआ है . देखकर आश्चर्य हुआ कि इतनी तादाद भारतीय में वहाँ जा रहें हैं .बहुत से अफगानी भी थे.फिर काबुलीवाला याद आया और याद आया कि हमारा तो बहुत पुराना रिश्ता है . अमिताभ बच्चन और श्रीदेवी की खुदा गवाह का ज़िक्र काबुल में कइ बार किया गया. काबुल हवाई अड्डा छोटा सा है . दिल्ली से करीब पौने दो घंटे का सफर है. काफी सामान है हमारे पास कुल २३ अदद .संभालना मुश्किल पर मदद के लिये लोग हैं.सामान की कौन देखभाल करे.हम तो आँखें फाडे देख रहे थे एक अलग दुनिया को.हिन्दी या कहिये उर्दु समझने वालों की कमी नहीं.हिन्दी बोलने वालों का काम आराम से चल सकता है. पर फ़ि्ज़ा में एक सहमापन है.लगता है खुल कर हंसेगे तो कोई गोली लग जाएगीागर जिधर अपनी नज़र घुमाइये और ए के ४७ के दर्शन हों तो हिसी तो दूर तक नहीं फटकती .हमने तो ए के ४७ का नाम संजय दत्त के ही संदर्भ में ही सुना था .अब देखा वो क्या चीज़ है जिसके लिये संजय दत्त अदालत का रास्ता नाप रहे हैं .एक फोटो भी खिचवा लिया उसके साथ पर वो आगे की किश्त है. भारत से जाने पर दो चीज़ें तुरन्त नज़र आती हैं.रास्ता में कम से लोग .यहाँ की भीड नहीं दिखाई पडती.और यहाँ के रंग नहीं हैं वहाँ.सडक पर औरतें न के बराबर हैं और जीवन में रंग तो हमीं से होता है.हर जगह बदूकें दिखना आम बात है.पुनःनिमार्ण का काम चल रहा है .आयातित कारें हैं इसलिय बडी कारें खूब दिखती हैं.हर घर हर भवन की दीवारें ऊँची ऊँची हैं.आभास होता है एक बन्द से परिवेश का.हमारे घर पर पहरा है सिपाहियों का.खूब हस्त खाने खैरत हस्ती? हालचाल कुशल मंगल पूछकर हम सकुशल अपने घर में घुस गए .बाहर के कैदखाने से दूर अपनी दुनिया बसाने.

मंगलवार, जुलाई 03, 2007

काबुल -पहली नज़र

खूब हस्त खूब हस्तम .खान-ए-खैरत ह्स्ती? काबुल पहुँचने पर स्वागत होता है ऐसे. तमाम तरीकों से खैरियत पूछने के बाद .हिन्दुस्तानियों से खास लगाव.तुरन्त उर्दू में बात करने को बेताब लोग.रास्ते भर एके -४७ के दर्शन .ऊँची ऊँची दीवारों के पीछे घर.न किसी का आँगन दिखे न किसी का बगीचा.तमाम जगह निर्माण का काम .एक टूटे शहर को आबाद करना है.निशान ज़खमों के.घरों की दीवारें छलनी हैं गोलीबारी से.चमन के माली ही उजाड गए जिसे .....उस गुलशन के आसुओं का बयान क्या करना .घर भी छलनी हैं ,दिल भी छलनी हैं .हाजी साहब काबुल दिखाते हुए मायूस हो जाते हैं .दरख्त भी नही छोडे किसी ने.बाग तक काट दिए .नदी बेज़ार सी बहती हुई. गवाह है तारीखों के गुम हो जाने की .पर्वत अपने शहर को न बचा पाने की बेबसी में लाचार से दिखते. सूखे . सडकों पर जहाँ खिलखिलाहट होनी चाहिए बच्चों की.....आवाज़ आती है गश्त लगाती फौजों की.