सोमवार, जनवरी 23, 2012

गुमनाम गलियों में भी मिलते हैं मील के पत्थर कई !

दिल्ली क्या देखी अगर सिर्फ कुतुबमीनार ,लाल किला या हुमायूँ का मकबरा भर देखा.इस शहर में देखने को इतना कुछ है ,बहुत ऐसा जिसके  बारे में आमतौर से हम जानते ही नहीं. देहली से दिल्ली तक  में दिल्ली दरबार के सौ साल पर राजधानी की सात पीढ़ियों के बारे में जानने का मौका मिला. क़ुतुब मीनार बनवाने वाले क़ुतुब-उद-दीन ऐबक ने महरौली में राजधानी बनायी और यहाँ बनी बस्ती. पर क़ुतुब मीनार की मशहूर छाया में इसके आसपास की बस्ती नज़रंदाज़ होती गयी. इसके बारे में पता चला २००१-०२ में जाकर  .

कुली खान की कब्र से कुतुबमीनार 




  एक अनूठा मौक़ा मिला ,उन सबको देखने का ,वह भी एक जानकार के साथ. दिल्ली को जानने समझने का यह एक बढ़िया तरीका है. कनिका सिंह "डेल्ही हेरिटेज  वाल्क्स " नाम से दिल्ली के इस छुपे इतिहास से हमें रूबरू करवाती हैं. दो साल पहले मुझे इनके बारे में पता चला ,और तबसे हर सप्ताहांत सोचती रही इनके इस अभियान से जुड़ने के लिए. इस रविवार यह मौक़ा आया. प्रोग्राम था कुतुबमीनार से अलग महरौली घूमने का . सुबह ९.३० बजे इकट्ठा हुए अनुव्रत मार्ग में इसके प्रवेश द्वार पर. वैसे वहां कोई दरवाज़ा नहीं है,सिर्फ मेन रोड से एक कच्चा,पथरीला   रास्ता अन्दर जाता  है  . हमेशा की तरह मैं रास्ते से  आगे निकल गयी,घूम कर छतरपुर मेट्रो स्टेशन  के सामने से यू टर्न लिया ,और पहुंचे वहां जहां और लोग इंतज़ार कर रहे थे. फिर शुरू हुआ एक प्रबुद्ध दौरा उन खंडहरों का. 
खान शहीद की कब्र 
पहला पड़ाव था,बलबन के मकबरे का दरवाज़ा. पता चला इसके बाद जो साफ़ की हुई जगह दिख रही थी ,उसकी खुदाई एक साल पहले ही हुई थी. उससे पहले वह करीब चार पांच फुट मिट्टी के नीचे  नीचे दबा था. यह पार  कर पहुंचे बलबन के मकबरे .कब्र तो दिखी नहीं ,पर उसके वास्तु के बारे में पता चला की इमारतों में पहली बार True arch  मेहराब का प्रयोग यहाँ हुआ था. और साथ ही यह ही भारत के शिल्प का  पहला गुम्बद .गुम्बद तो रहा नहीं पर कैसे बना इसका अनुमान,वहां के पत्थरों से  लगाया जा सकता है. मामलुक  वंश के सबसे काबिल सुलतान बलबन , की मृत्यु जंग में नहीं हुई.वो टूट गए अपने प्यारे  बेटे खान शहीद की मौत से. खान शहीद की कब्र उनके मकबरे के बगल के कमरे में बनी  है और अभी तक सही सलामत मौजूद  है. अभी हाल ही के दिनों में ,आसपास के गाँव वालों ने इस पर अगरबत्ती जलाना  शुरू कर दिया है . शायद कुछ चमत्कार हुआ होगा ,या कोई मन्नत पूरी हुई होगी जिसने यह आस्था जगा दी ,  दीवार पर कुछ नीली टाईल के टुकड़े इस इमारत की खोयी  हुई सुन्दरता की  कहानी कहने की कोशिश कर रहे  थे.
जमाली कमाली की मस्जिद 
छत पर चित्रकारी 
वहां से निकल कर हम कुछ सीढियां चढ़ ऊपर पहुंचे जो शायद रहने की जगह थी. टूटी दीवारों से कमरे होने का एहसास हो रहा था .यहाँ से आगे  पहुंचे उस पुरातत्व उद्यान के सबसे मशहूर अवशेष जलाली कमाली के मस्जिद पर. चहारदीवारी के अन्दर पांच मेहराबों वाली मस्जिद ,जहां वज़ू  के लिए एक हौज़ बना था . मस्जिद के उत्तरी  तरफ तीन चार  सीढियां चढ़  , एक दरवाज़े से अन्दर जा पहुंचे जमाली कमाली के कब्र के आसपास के पाक अहाते में. सामने ही था उनका मकबरा .  सिकन्दर लोदी से हुमायूँ के समकालीन ,शेख फजलुल्लाह उर्फ़  जमाली सूफी फ़कीर और कवि थे.उनका मकबरा ख़ासा सुन्दर था. छत पर बढ़िया रंगों से और दीवारों पर रंगीन टाईल्स से चित्रकारी की हुई थी. ऊपर,चारोँ ओर, जमाली की रची कुछ पंक्तियाँ भी तराशी गयी थीं .  जमाली की कब्र बीच में थी और उनके एक ओर एक और कब्र . अनजान व्यक्ति की इस कब्र को कहा  गया है,उनके दोस्त की है और उन्हें  नाम दिया गया कमाली.वैसे अभी तक यह पता नहीं चल पाया है की जनाब कमाली की शख्सियत   क्या थी. आसपास की  तमाम जगह पर कई कब्रें दिखीं. यहाँ तक एक के ऊपर  तो छतरी भी बनी है.शायद किसी  ख़ास शख्स की होगी.
जमाली कमाली की कब्रें 
कुली खान का मकबरा 
मेटकाल्फ फोली 
बोट हाऊज़ से सूखी दरिया 
वहां से निकले तो पहुंचे  मुगलों के दरबार में ब्रिटिश रेसिडेंट थोमस मेटकाफ के घर . मेटकाफ ने मुगलों से महरौली का यह इलाका खरीद लिया था. इस में शामिल थे  यहाँ के  मकबरे ,मस्जिद,एक नहर सब कुछ . फिर उन्होंने इस में तब्दीलियाँ करनी शुरू कीं. टीले बनवाये  ,नदिया का रास्ता मोड़ एक केरिजवे बनवाया,लोदी काल की एक ईमारत  में फेर बदल कर  बोट हाउस बनवाया, बाग़ -बगीचे बनाए और नाम दिया दिलखुश ! यहाँ वह  वर्षा ऋतू का आनन्द लेने आते थे . कनिका कहती हैं यह दिल्ली का पहला फार्म हाउज़ था! अब तो महरौली के आसपास गाँवों की जगह फार्म हाउजों  ने ले ली है.  जमाली कमाली के पास में ही एक टीले पर है उनके द्वारा बनवाई गयी बारादारीनुमा मेटकाफ'स फ़ॉली  ' .यहाँ से नीचे उतरकर चले उस रास्ते जहां मेटकाफ    ने एक छोटी सी नदी की धार ही बदल दी और उसका बांधकर एक तालाब बनवाया . यहाँ से पहुंचे मेटकाफ के घर . पर यह घर वास्तव में कुली खान का मकबरा था. कुली खान ,अकबर ,की दाई माँ माहम  अंगा के बेटे आधम खान के भाई थे. आधम खान के मकबरे का गुम्बद दिखा,महरौली गाँव के घरों के बीच से,पर वहां जाना हमारी  इस सैर में शामिल नहीं था. कुली खान की कब्र वहां से हटा दी गयी और यह मकबरा बना मेटकाफ का घर .यहाँ से कुतुबमीनार भी पास दिखता   है .
राजों की बाओली 
अब था इस सैर का आख़िरी पड़ाव .इन सब से अलग एक बाओली .राजों की बाओली और उसके आगे गंधक की बाओली .हमने देखी सिर्फ राजगीर यानी मिस्त्रियों के लिए बनी राजों की बाओली . तीन  मंजिली ,नीचे तक पहुँचती सीढियां ,चारों ओर बैठने के लिए बने गलियारे  ,यह बाओली वाकई शानदार थी. कुछ देर सीढ़ियों पर बैठकर  उसकी कहानी सुनी  और फिर घूम कर ऊपर पहुंचे जहां बने थे एक १२ खम्बे की इमारत में एक कब्र और साथ एक  मस्जिद .इस मकबरे में साफ़ पता चल रहा था की नीचे एक चौकोर   चबूतरा  ऊपर पहुँचते पहुँचते कैसे गोलाकार हो जाता है और उसके ऊपर गुम्बद बनाना संभव होता है !निर्माण कला का एक पाठ मिला!
यह था एक सफ़र दिल्ली के कम लोकप्रिय पर उतने ही रोचक और ऐतिहासिक महरौली की बस्ती का. यहाँ दिल्ली पर राज करने वाले गुलाम वंश के बलबन से लेकर ,लोदी,मुग़ल वंश से होकर  ब्रिटिश काल की इमारतें और खंडहर माजूद हैं. सचमुच पन्ने दर पन्ने खुलता  इतिहास  !