सोमवार, फ़रवरी 20, 2012

कुदरत का जादू उतरता ही नहीं

 सोचती हूँ  कि शहर में रह कर भी ऐसी जगह रहना जहाँ  हर सवेरे नंगे पाँव ओसमयी घास पर चलने का आनंद मिले और हर शाम, छोटी छोटी क्यारियों के बीच बैठकर चाय का लुत्फ़ उठाया जाए,यह खुशकिस्मत होने  की इन्तिहा होती  है। बचपन से युवावस्था तक घर शहर में होकर भी ऐसी कालोनी में था जहां पेड़ों के पत्तियों  से झांकते मकान दिखाई देते और शाम को मोर भी कभी कभी मेहमान हमारे होते।  कुदरत से यह नजदीकियां, बचपन के दिनों की सबसे सशक्त यादें  है। सावन के अंधे को सब हरा ही दीखता है। मुझे ऐसा लगता है की  वही सावन का अंधापन मेरी आँख में बस गया है। आज उस घर को छोड़े करीब बीस साल होने को हैं पर जब भी अपने शहर की याद आती है,  तो वही हरियाली सामने रहती है। बड़ा ही सलोना सा  किचन गार्डन  था। न बहुत बड़ा न बहुत छोटा। इतना बड़ा की कई तरह के पेड़ उसमें लगाए गए थे पर इतना छोटा  की अपनापन लगे।  दो दशहरी  आम के  पेड़ थे ,जो हमसे पहले उस घर के निवासियों ने  लगाए थे और  फल हमने खाए।  मज़े  की बात यह थी की वह  हमारे घर की चहारदीवारी के पास ही लगे थे। तो लाजिमी था की रास्ते चलते लोगों की नज़र उन पर लटके बड़े बड़े आमों पर पड़ ही जाती। गर्मी की दोपहरी में माँ उसकी रखवाली करतीं। और अगर कोई बच्चा उन आम को तोड़ने की हिमाकत करता तो उसपर बरस पड़तीं।  रसोई घर का  एक दरवाज़ा इन खेतों में खुलता।  मुझे अभी भी याद है,धनिया की चटनी बननी है तो तुरंत धनिया तोड़ी जाती।  उसका स्वाद कुछ अलग ही होता। या फिर नलके के पास से पुदीना हाथों हाथ मिल जाता।
केले का वह झुरमुट,जो इस तरह से बना था कि  बीच में थोड़ी सी खाली जगह थी।  मैंने अपने दसवीं और बारहवीं के इम्तिहान इसी झुरमुट के बीच पढ़कर दिए। पापा आफिस से आते तो जितने भी थके हों खुरपी उठाकर कुछ गुड़ाई कर लेते तो थकान दूर हो जाती।  कोई घर में नाराज़ है तो उसको यहीं कहीं किसी कोने में ढूँढा जाता।वह  या तो  कोने में जामुन के पेड़ के नीचे बैठा होगा या फिर किसी अमरूद के पास। अमरूद के भी चार  पेड़ थे। 

हम लोगों ने तो इस प्रकृति को अपने मन में बैठा ही लिया था पर  कुदरत के साथ  पच्चीस सालों का जो सबसे यादगार पल थे वह मिले  जब अगली  पीढी  आयी। बहन का बेटा, मानस , दो या तीन साल का रहा होगा।  वह घर आता तो उन्हीं खेत की पगडंडियों पर सारा समय गुजारता।  पापा के साथ पौधों में पानी डालना उसका  प्रिय काम था।  पानी नहीं भी पड़ना है तो भी वह आकर  कहता ,"नाना,पेड़  सूख  रहे  हैं,पानी डाल दीजिये  !' नाना बोलते ,"अरे  अभी तो सींच  दिया  है। "  जवाब में ,"पर कुछ जगह आपने छोड़ दी है, लाइए मैं ठीक से सींच देता हूँ।  आप  थक   गए होंगे। "  
चित्र  में वह नाना की मदद करते हुए , उनसे पाईप छीनकर  खुद  सिंचाई करने  की कोशिश  कर रहा है.

ऐसे  ही याद है जब उसे अमरूद पेड़ पर लटके दिखते। संयोग  से कुछ अमरूद की डालें इतनी झुकी थीं की उसकी छोटी सी पकड़  के पास थीं। उसका अमरूद खाने का अंदाज़ निराया था।  तस्वीर उसी अंदाज़ को बयान  करती है। 


शुक्रवार, फ़रवरी 10, 2012

कहीं समान्तर

दिल का  एक कोना था बिलकुल सन्नाटे में, शांत। किसी को खबर नहीं, कभी कभी उसे भी नहीं.
 पढाई पूरी कर, पहली नौकरी   लगी थी। उत्साह था लगता  खजाना मिल गया।  पर अब तक घर के रुई के फाहों के बीच सिमटी दुनिया छोड़  दिल्ली पहंची तो वह  "मिडल टाउन  गर्ल"  बड़े शहर में गुमसुम सी हो गयी। लोगों के बात करने का तरीका अलहदा ,शहर की तेज़ी उसके छोटे शहर के नर्म भावों से कोसों दूर।  वह भी  अपनी हकबक छुपाते हुए , स्मार्ट दिखने की कोशिश में लगी थी।  अभी तो ट्रेनिंग का समय था।  वहां तो ठीक,काम से काम रख हर बात का संक्षिप्त जवाब दे लेक्चर पर ही तो ध्यान देना था।  तमाम जगह से सहकर्मी थे। थे तो सब उसी के हमउम्र,पर सब के मिज़ाज अलग।  देख कर पता चल जाता कौन कैसा है।  उसकी तरह और भी शांत थे,शायद छोटी जगह तो नहीं पर हाँ घर से पहली बार निकले हुए।  कुछ ने पहले भी कहीं नौकरी की थी,उनके लहजे में उसकी ठसक थी.
चाय का ब्रेक हुआ।  अब तो लाउंज में मिलना जुलना ही पडेगा।  हाय हेलो करते,मुसकराते,  फिर  आदतन   भीड़- भाड़ और स्माल टॉक की दुनिया में वह असहाय सी अकेले पड़ गयी। शुरुआती अभिवादन तक तो ठीक था पर उसके बाद  कुरेदती अपने आप को,अब कहें तो क्या कहें।  पहली बार मिल रहे लोगों को स्कूल,कालेज,पढाई के बाद क्या बताएँ।  हमेशा यही तो होता आया है अभी तक।   न जाने कहाँ से लोग करते  हैं इतनी बातें।  किस बारे में अपनी राय जग जाहिर करते हैं।  क्या पूछे दूसरों से ; लगता जैसे पूछताछ कर रही हो। 
चाय का कप,एक अदद  बिस्किट और इस भरे कमरे में वह खामोश, सोचती बाकी क्या सोच रहे होंगे  उसके बारे में। कोई नज़दीक आता तो एक मुस्कान से हैलो  और फिर अकेले। 
इधर उधर,सबको वह अपनी नज़र से परखने की कोशिश कर रही थी। " हैलो ,एक हाथ बढ़ा। एक मुस्कान दिखी. "मैं....हूँ .".सकपका कर उसने देखा। लम्बे गोरे चेहरे पर वही खोया हुआ भाव ,जो शायद उसके अपने चेहरे की शिकन में दिख रहा था। वह भी मुस्कराई। परिचय दिया, और फिर दोनों हमफितरत की तरह  चुप. "नाईस टू मीट यू", और आगे बढ़ गया। 
आफिस के ही  किसी दफ्तर में वह भी था ,पर दूर किसी शहर में. पोस्टिंग, काम,दोस्त सब बने ,पर उसका वह कोना कोइ नहीं देख पाया। न वह फिर मिली उससे। कभी किसी कागज़ पर नाम देखती तो सहम जाती। लगता कोई उसकी चोरी न पकड़ ले।  उसको तो याद भी नहीं होगा की वह उससे  कभी मिला भी था। वह भी तो कैसे निपट गंवार की तरह सिर्फ मुसकरा भर दी थी। 
१५ साल में प्यार किया,शादी,बच्चे ,ज़िंदगी का अपना चक्र चल रहा था.... १ साल हुए  तबादला  हेड आफिस हो गया।  मीटिंग है। उसी कान्फरेन्स रूम में चाय के कप और एक ग्रुप के साथ कुछ कामकाज की बातें।  और फिर पुरानी आदत से मजबूर।  " हेलो अब कैसी हैं आप ! " उसे  अपनी 40  साल की सारी परिपक्वता की मदद लेते हुए, चेहरा लाल होने से रोका.. ओह तो वही कोना वहाँ  भी !